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कबूतरबाज़ी / नज़ीर अकबराबादी

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है आलमे बाज़ी<ref>खेल तमाशा</ref> में जो मुम्ताज़<ref>ख़ास</ref> कबूतर।
और शौक़ के ताइर<ref>उड़ने वाले पक्षी</ref> से हैं अम्बाज़<ref>मिले हुए</ref> कबूतर।
भाते हैं बहुत हमको यह तन्नाज़<ref>इठलाकर चलने वाले</ref> कबूतर।
मुद्दत से जो समझें हमें हमराफ़<ref>मित्र, दोस्त</ref> कबूतर।
फिर हमसे भला क्योंकि रहें बाज़ कबूतर॥1॥

हैवान हैं गरचे अजब अन्दाज के पर हैं।
सूरत में परीवार<ref>अप्सरा जैसे सुन्दर</ref> तो सीरत<ref>स्वभाव</ref> में बशर<ref>आदमी</ref> हैं।
आवाज़ से वाक़िफ़<ref>परिचित</ref> हैं इशारों से ख़बर हैं।
परवाज़<ref>उड़ने में</ref> में हमशहपरे अनक़ाए नज़र हैं।
क्या गोले हों, और क्या हों गिरहबाज़ कबूतर॥2॥

क्या बुलबुलों, कुमरीओ चहे पिदड़ियों पिद्दे।
चंडूल, अगिन, लाल, बए अबलके़, तोते।
क्या तूतियो मैना व पबई तीतरो शिकरे।
तायर हैं ग़रज़ बाज़ीए अश़ग़ाल<ref>काम</ref> के जितने।
की ग़ौर तो हैं सबसे सरअफ़राज़<ref>सिर ऊंचा उठाने वाले</ref> कबूतर॥3॥

हैं बसरई और काबुली शीराज़ी निसावर।
चोया चन्दनो सब्जमुक्खी शस्तरो अक्कर।
ताऊसियो, कुल पोटिये, नीले, गुली थय्यड़।
तारों के यह अन्दाज़ नहीं बामे फ़लक पर।
जो करते हैं छतरी के ऊपर नाज़ कबूतर॥4॥

लक्के़ं हैं इधर अपनी कसावट को दिखाते।
चीते हैं उधर सीम बरी अपनी जताते।
हैं जोगिये भी रंग कई जोग के लाते।
परियों के परे देख के हैं चर्ख़<ref>आसमान</ref> मंे आते।
जब हल्क़ा जनां करते हैं परवाज़ कबूतर॥5॥

खीरे व टपीतो, चुपो, नुफ़्ते व मुखेरे।
ज़रचे, व गुल आंख ललआंख, ऊदे व ज़र्दे।
कुछ कावरे तीरे मसी व तूसी व पल्के।
फिरते हैं ठुमक चाल सुनाते हैं खुशी से।
क्या क्या वह गु़टरगू़ं की खुश आवाज़ कबूतर॥6॥

सीमाबिये और घाघरे तम्बोलिये पान लाल।
कुछ अगरई और सुरमई और अम्बरी और ख़ाल।
भूरे मग़्सी तांबड़े बबरे भी खुश अहवाल।
फिर हस्तरे और कासनी लोटन भी सुबुक बाल।
खोले हैं गिरह दिल की गिरह बाज़ कबूतर॥7॥

‘कू’ करके जिधर के तई छीपी को हिलावें।
कुछ होवे ग़रज फिर वह उसी सिम्त को जावें।
कुट्टी को न फड़कावें तो फिर तह को न आवें।
छोड़ उनको ‘नज़ीर’ अपना दिल अब किससे लगावें।
अपने तो लड़कपन से है दम साज़ कबूतर॥8॥

शब्दार्थ
<references/>