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ताबीज़-2 / नज़ीर अकबराबादी

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हो कुछ आसेब<ref>प्रेत बाधा</ref> तो वाँ चाहिए गंडा ताबीज़।
और जो हो इश्क़ का साया तो करे क्या ताबीज़।
दिल को जिस वक्त यह जिन आन के लिपटा फिर तो।
क्या करें वां वह जो लिखते हैं फ़लीता ताबीज़।
हम तो जब होश में आवें तो कहीं से पावें।
यार के हाथ का, बाजू का, गले का ताबीज़।
ज़ोर ताबीज़ का चलता तो अरब में यारो।
क्या कोई एक भी मजनूँ को न देता ताबीज़।
कोहकन<ref>पहाड़ काटने वाला, शीरीं के प्रेमी फरहाद की उपाधि जिसने शीरीं के लिए पहाड़ काटते हुए अपने प्राण दे दिए</ref> कोह<ref>पहाड़</ref> को किस वास्ते काटा करता।
देते ग़मख़्वार न क्या इसके तई ला ताबीज़।
आखि़र इसके भी गया दिल का धड़कना उस रोज़।
क़ब्र का तेश<ref>तेशः, कुदाल</ref> ने जब इसके तराशा ताबीज़।
हमको भी कितने ही लोगों ने दिए आह ”नज़ीर“।
पर किसी का भी कोई काम न आया ताबीज़।
इश्क का दूर करे दिल से जो धड़का ताबीज़।
इस धड़ाके का कोई हमने न देखा ताबीज़॥

शब्दार्थ
<references/>