क्यूं न झमक कर करे जलवा गरी पखिया।
कुछ कफ़ेनाजुक परी<ref>अप्सरा का सुन्दर हाथ</ref>, कुछ वह परी पंखिया॥
देख चमन में सहर<ref>प्रातः</ref>, इसकी जबी<ref>माथा</ref> पर अर्क़।
लाई उधर से नसीम<ref>शीतल मंद पवन</ref>, इत्र भरी पंखिया॥
शाख़ ने गुल की इधर बर्ग जो थी सब्ज तर।
उनकी बनाकर झली उसको हरी पंखिया॥
गर्मी में एक दिन गये उससे जो मिलने को हम।
छोटी सी आगे थी एक उसके धरी पंखिया॥
हम थे पसीने में तर, बैठते ही यक बयक।
हाथ बढ़ाकर जो लीं, उसकी ज़री पंखिया॥
उसने वहीं छीन ली और यह कहा वाह वाह।
तूने छुई क्यूं मेरी, जेब भरी पंखिया॥
कुछ थी अर्क़ की तरी, कुछ हुई खि़जलत<ref>लज्जा</ref> ”नज़ीर“।
और तरी के ऊपर लाई तरी पंखिया॥
शब्दार्थ
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