सो सब सपने की सम्पति सम अब न लखाहीं।
कहूँ कछू हू वा साँचे सुख की परछाहीं॥
अब नहिं बरसागम मैं वैसी आँधी आवैं।
नहिं घन अठवारन लौं वैसी झरी लगावैं॥
नहिं वैसो जाड़ा बसन्त नहिं ग्रीसम हूँ तस।
आवत मनहिं लुभावत हरखावत आगे कस॥
नहिं वैसे लखि परत शस्य लहरत खेतन मैं।
नहिं बन मैं वह शोभा, नहिं विनोद जन मन मैं॥
अद्भुत उलट फेर दिखरायो समय बदलि रंग।
मनहुँ देसहू वृद्ध भयो निज बृद्ध पने संग॥
ताहू मैं यह गाँव की परत लखि अति दुर्गति।
तासु निवासी जन की सब भाँतिन सों अवनति॥
अपनेहीं घर रह्यो जासु उन्नति को कारन।
ताही के अनुरूप कियो छबि या मैं धारन॥