हे ईश्वर!
आज पूछती हूँ तुमसे
क्यों जन्म दिया मुझे,
वह भी नारी के रूप में
क्या यूँ ही
छाँव के लिए तरसना
है मेरी नियति
जीवन की तपती धूप में!
मैं...मैं कौन हूँ?
मेीर अस्तित्व कहाँ है?
पीड़ा सहकर भी
क्यों मौन हूँ?
जहाँ जन्मी, पली, बढ़ी
उस मधुबन का
एक पत्ता भी तो मेरा नहीं
क्यों तोड़कर माली ने
निर्ममता से
मुझे फेंक दिया है
नियति की झोली में
और गिरी भी तो कहाँ!
अनावश्यक ही समझी गयी जहाँ-
सृष्टि की निर्मात्री हूँ,
परन्तु इसमें भी मेरी महानता कहाँ है?
यह तो सदियों से चली आ रही
महज एक परम्परा है।
पहचानी जाऊँ
अपने ही नाम से
यह मेरी किस्मत कहाँ?
कहलाती हूँ-
बेटी किसी की,
किसी की बहन,
किसी की पत्नी,
और कभी किसी की माँ।
नारी हूँ
पर जन्म न दूँ नारी को
यह भी अपेक्षा है
आधुनिक नारी की
यह कैसी कठिन
अग्नि परीक्षा है?