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यथार्थ बोध / पल्लवी मिश्रा

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ये दौड़-धूप, ये भागाभागी
ये हाय-हाय, ये आपाधापी
कुछ देर ठहर कर सोच मुसाफिर
आखिर यह सब किसकी खातिर?
खुद अपने लिए या अपनों के लिए?
जागी आँखों के ख्वाबों की खातिर?
या उनींदी आँखों के सपनों के लिए?
अगर यह सब खुद के लिए है,
तो इतना बतलाना-
यह मुझको समझाना-
कि दो वक्त की रोटी के बदले
आखिर तुम क्या-क्या खाओगे?
सोने-चाँदी के बिस्कुट से
क्या अपनी भूख मिटा पाओगे?
तन ढकने को एक वक्त में
एक वस्त्र ही पहन पाओगे;
गर दस-पाँच पहन लिया तो
जमूरे ही कहलाओगे।
क्या कहते हो? सैर करोगे?
लेकिन वह भी कहाँ-कहाँ?
गम की बदली साथ चलेगी
तुम जाओगे जहाँ-जहाँ?
अगर यह सब अपनों की खातिर है
तो क्या कभी पूछा है उनसे?
कि जिनके लिए तुम हो बेचैन,
साँस गँवाते हो दिन-रैन
उनको तुम प्यारे हो या तुम्हारी दौलत?
क्या कहा?
पूछने की मिलती कहाँ है फुरसत?
चाँदी के सिक्कों की झंकार से ऊबकर
सूद-जियाँ के व्यापार से ऊबकर
देखना तेरे अपने साथ न तेरा छोड़ दें,
नाजुक रिश्तों के बन्धन
इक झटके में न तोड़ दें
तब तुम तन्हाई में अहसास करोगे-
मेरी बातों का विश्वास करोगे-
लेकिन तब तक इतनी दूर निकल जाओगे-
कि लौट कर वापस न आ पाओगे-
दौलत की उत्कट चाहत तेरी
आखिरकार हो जाएगी पूरी
तन्हा सिंहासन पर ऐश करोगे
लेकिन
किस पर तैश करोगे?
जश्न-ए-फतह के मौसम में होगा
मानो शिकस्त का मातम;
जब कोई साथ नहीं होगा
तब होगा कैसा आलम?
अभी वक्त है सँभल सकते हो;
राह बदलने में क्यों झिझकते हो?