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गुनाह / पल्लवी मिश्रा

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सुना था
पश्चात्ताप के आँसू से
हर पाप धुल जाते हैं
बंजर जमीं पर गिरें ये बूँदें
तो फूल खिल जाते हैं
पर-
रोकर भी हमने देख लिया;
न पाप धुले,
न फूल खिले
बल्कि-
आँसुओं से धुलकर
गुनाह-
कुछ और चमक गए हैं।
पहले थे जो धुँधले-धुँधले
आईने की तरह
दमक गए हैं।
इस गुनाह के आईने में
जब भी देखा है
अपना अक्स
बड़ा डरावना-सा लगा है
जो चेहरा
भोला और मासूम था कभी
उस पर यह आवरण कैसा है?
इसकी हँसी,
इसका भोलापन
कौन छीन रहा है?
इक अजीब सूनेपन का जाल
निगाहों में
कौन बुन रहा है?
आँखों के स्निग्ध भाव को
किसने कसैला कर दिया है?
आत्मा की चादर
जो कभी थी
शुभ्र, उज्ज्वल, झकझक
उसे भी
मैला कर दिया है।
इसी मैल को
आँसुओं से
धोने की कोशिश कर रही हूँ
और यह सोच-सोच कर
डर रही हूँ
कि यदि यह मैल
छूट न पाया
तो-
इसके दाता को
कैसे इसे लौटाऊँगी?
चाँद के दाग को
भला मिटा पाया है कोई?
फिर आत्मा के मैल को
कैसे मिटाऊँगी?