Last modified on 8 फ़रवरी 2016, at 12:00

भौतिकता / पल्लवी मिश्रा

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:00, 8 फ़रवरी 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पल्लवी मिश्रा |अनुवादक= |संग्रह=इ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

कितने अच्छे थे वो लम्हें, जब सपने छोटे होते थे,
छोटी खुशियाँ, छोटे गम थे, हम संग-संग हँसते रोते थे।

आज न जाने कैसे सपने देख रहे हैं नैन हमारे,
कि नींद, उचट जाती रातों में, छिन रहे हैं चैन हमारे।

इक छोटे से घर का सपना तब्दील हो गया इमारत में,
अमन चैन की जगह माँग रहे हम बँगले-गाड़ी इबादत में।

घड़ी दो घड़ी की गुफ्तगूँ में भी बातें सूद-जियाँ की होती हैं,
कितनी लागत? क्या नुकसान-नफा? इसी पर चर्चा होती है।

प्यार-मुहब्बत, रिश्ते-नाते तुल रहे दौलत संग पलड़े में,
कौनसा पलड़ा भारी है? कौन पड़े इस झगड़े में?

भौतिकता के दौड़ में रह गई है पीछे नैतिकता,
कौन भला इस कलियुग में सिक्कों के मोल नहीं बिकता?