Last modified on 8 फ़रवरी 2016, at 12:04

अभिव्यक्ति / पल्लवी मिश्रा

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:04, 8 फ़रवरी 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पल्लवी मिश्रा |अनुवादक= |संग्रह=इ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जब बहुत कुछ कहना चाहती हूँ
वाणी मूक हो जाती है-
शब्दों के चयन में भी
कहीं न कहीं
चूक हो जाती है-
भावनाओं का बादल निरन्तर-
अन्दर ही अन्दर-
उमड़ने-घुमड़ने लगता है-
और सैलाब बनकर
यदा-कदा
आँखों से बरसने लगता है-
हृदय की चोट को-
अन्तरतम की कचोट को-
व्यक्त करने में
फिर भी रह जाता है
असमर्थ-
और हो जाता है
अर्थ का अनर्थ-
कहना क्या चाहती हूँ
और लोग समझ क्या लेते हैं-
फिर प्रश्नों के कठघरे में
मुझको खड़ा कर देते हैं-
और मैं दे नहीं पाती हूँ
समुचित उत्तर/प्रत्युत्तर-
और लोग समझते हैं
कि हो गई हूँ निरुत्तर-
क्योंकि
जब बहुत कुछ कहना चाहती हूँ
वाणी मूक हो जाती है-
शब्दों के चयन में भी
कहीं न कहीं
चूक हो जाती है।