(बाबा अर्जुन देव मजबूर के लिए)
यह सच है कि अब
नहीं होती अंकुरित
होंठों पर हमारे
केसरी मुस्कुराहटें
हमारे वनों में अब
नहीं गाती है कोई
गडरिया की बेटी
यह भी सच है बाबा
कि अब की बार
हमारी घाटी में
रिसा है उतना पानी
कि जिसको
नहीं निकाल सकता अकेले
तुम्हारा यह कश्यप
लेकिन बाबा
पलट ही जाएंगे इतिहास के पन्ने
देर या सबेर
और पूरी हो ही जाएगी
पत्थरीले पहाड़ों के बीच
निर्वासन का ताप झेलने वालों के
दिल की झोलियों में
संभाली हुई
घर वापस लौटाने की
उत्कट इच्छा
वह इच्छा जो
पत्थरों के बीच रह कर भी बाबा
तुम्हारी बूढी आँखों को
बख़्श देती है
शीशों से सुन्दर सपने
और रचना सृष्टि का साहस.