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मोबाइल टावर / निदा नवाज़

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कभी हमारे आंगन में होता था
चिनार या पीपल का
एक कुबड़ा पेड़
घर के किसी बूढ़े बुज़र्ग की तरह
कड़ी धूप में बैठते थे हम
उसी की छाया में
उसी के नीचे मनाते थे
ईद या दीवाली की खुशियां
जब कभी घर वालों से
रुठते थे बचपन में
बहाते थे उसी के नीचे
दुखों के आंसू
और जवानी में जब कभी
मिलता था किसी दोस्त का
कोई प्रेम पत्र
उसी पेड़ की ओट में
पढ़ते थे चोरी छुपे
उसी पेड़ के नीचे
दादाजी लगवाते थे चारपाई
सुनाते थे अपनी जीवन गाथा
उस पेड़ की टहनियों पर
चहचहाती थीं चिड़ियाँ
कूकती थी कोयल
गाती थी बुलबुल

और आज...
उस पेड़ की जगह
हमारे आंगन में लगा है
एक मोबाईल टावर
टहनियों की जगह यंत्र
घोंसलों की जगह
गोल गोल एंटेना
 
मैं बैठा हूँ उसी के नीचे
रेडियो किरणों की छाया में
मोबायल टॅावर के नीचे बैठे
आता है मुझे
एक अदभुत विचार
काश कि फलाँगती
ये आवाज़ों की लहरें
उन उपकरणों की सीमाएं
निकल जातीं एक एक करके बाहर
और फैल जातीं
मेरे आंगन की फिज़ाओं में
मैं सुन लेता
किसी बच्चे की तोतली भाषा से
फूटने वाली एक किलकारी
किसी बूढ़े-बुज़र्ग की सलाह
किसी प्यार करने वाले
जोड़े की सरगोशियाँ
कुछ क्षण के लिए
मुझे भी हो जता आभास
जीवित होने का
स्टील और सीमेंट में ढलते
इस मानवीय समाज में.