‘वनमाली’ औ’ ‘आशा’ मानों पुरुष-प्रकृति की जोड़ी
इन्द्र-शची से मिलती जिनकी आकृति थोड़ी-थोड़ी
मन के कोमल भावों का ऐश्वर्य-कोष अक्षय है
लूटें जितना जी चाहे यह दुनिया निपट-निगोड़ी
सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् उपदेशों की झड़ी लगाते
घूम रहे हैं मधुर प्रेम की दोनों अलख जगाते
गाँव-गाँव, टोले-टोले, घर-घर में धूम मची है
कैसे हैं ये थकते हैं न कभी जो रस बरसाते
केवल देना ही देना सीखा, न किसी से लेना
अंजलि भर जल पी लेते, खा लेते चना-चबेना
उज्ज्वल शुचि परिधान चाँदनी ज्यौं शरीर से लिपटी
कोसों दूर खड़ी ठिठकी-सहमी रति-पति की सेना
मन में नहीं विकार, हृदय-सरवर लहरों से सूना
मनुज-मनों में प्रेम देवताओं से था चौगूना
करुणा की चंद्रिका छिटकती थी युग चंद्रानन से
निश्छल प्रेमोदधि उछाल भरता था दूना-दूना
मानवीय सद्गुण समस्त आश्रय पा रहे जहाँ थे
निखिल विश्व में आशा-वनमाली-से युग्म कहाँ थे
जितनी थीं विभूतियाँ आदर्शों की शुचितम पावन
सद्भाव सभी समुपस्थित विनत वहाँ थे
ईसा की शुभ क्षमा, बुद्ध की शांति परम कल्याणी
तत्त्व-ज्ञान ‘शंकर’ का, तुलसी-मीरा की शुचि वाणी
जन-सेवा में निरत चतुर्दिक भ्रमणशील थे दोनों
अधरों पर मुस्कान, नयन-सर में करुणा का पानी
दीन-दुखी जो भी आते उनको भगवान समझकर
परम शांति-संतोष प्राप्त करते थे बाँहों में भर
‘नर’ में ही ‘नारायण’ की कल्पना सदा करते थे
मोक्ष-मुक्ति की चाह न कर परितोष हृदय भरते थे
”सबसे ऊपर है मनुष्य दूसरा न कोई जग में
उनकी यह समदृष्टि न उलझी कभी किसी जग-मग में
ऊँच-नीच का भेद नहीं था, निर्धन-धनी न कोई
उनकी आत्मा जीव मात्र की पीड़ा लखकर रोई
गाँव-गाँव सेवा करते थे भ्रमणशील वे दोनों
इस सारे संसार-चक्र की एक कील थे दोनों
तन थे दो, मन-प्राण एक थे, एक राह दोनों की
क्षण-क्षण होते रहें विसर्जित-एक चाह दोनों की
नहीं देश की दीवारें थीं, रंग-भेद की सीमा
पिता सदाशिव, पार्वती थी केवल उनकी श्री-मा
जग का अणु-अणु उनका जैसे तन का रोंआ-रोंआ
शांति-दीप प्रज्वलित-प्रकाशित उसमें धीमा-धीमा