पकने लगते हैं जब अमरूद
बाड़ी नहीं
घर नहीं
मोहल्ला नहीं
समूचा गाँव
एकबारगी महक उठता है
मीठी और एक जरूरी गंध से
महिलाएँ मनबोधी फल को
मन के लाख न चाहते हुए भी
शहर में छोड़ आती हैं
नोन, तेल, साबुन के लिए
पकने लगते हैं जब अमरूद
चिड़ियों की दुनिया
उतर आती है इधर ही
बच्चों के गमछे में भर-भर जाता है
सुबह
शाम
दोपहर का नाश्ता –सब कुछ
माएँ सिलाती है अमरूद
बड़े भोर से जागते ही
ऐसे वक्त
वे कोसती भी हैं चिड़ियों को
ठीक अपने औलाद की तरह
वैसे भी
बच्चे और चिड़िया पर्याय हैं परस्पर
अमरूद के पेड़ से चिपके रहते हैं
आखिर दोनों
एक दिन भर तो रात भर दूसरा
पिता अमरूद तोड़ते वक्त
मनौती माँगते हैं रोज़
एक भी पेड़ अमरूद का
सूख न पाये और पकने का मौसम
हरा रहे पूरे बारहमास
पता नहीं
मनौती
कब पूरी होगी