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निकल आ / जयप्रकाश मानस

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सुरागों की पथरीली गंध से किरणें अक्सर हो जाती हैं उदास

फिर फैलाती हैं चहुँदिशि

नैश अंधकार


प्रकाशित नहीं कर पाती बाहर की दुनिया

कि ठीक-ठाक देखा जा सके भीतर तक


ऐसे में कई बार ख़तरा होता है

अन-अस्तित्व होने का


ओ सशंकित मन

निकल आ बाहर

इधर

अपने गुहा से


यहाँ सूरज की पुतलियों में उभर रहा है

समूचा ब्रह्मांड समूची पृथ्वी

एक-एक ग्रह, नक्षत्र, उल्का पिंड

नीलिमा का विस्तार


इनमें कलरव है कोलाहल है

और कुतूहल भी कम नहीं