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कवि / पतझड़ / श्रीउमेश

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कवि निरमोही ऐलोॅ छै, काँखी तर लैकेॅ एक चटाय।
भिड़लोॅ छै कविता-लेखन में, कखनी पूरै छै अध्याय?
बोलै छै, ”हमरा गाछी तर पावै छै सुख-सान्ति अपार।
यहाँ प्रकृति के गोदी में, फूटै छै कबिता के रस-धार॥
अमर काव्य के सृष्टि एक दिन गाछी तर होलोॅ होतै।
बाल्मीकि या व्यासदेव के कलम यहीं चललोॅ होतै॥
जै पवित्र गाछी तर हूनी रामायन लिखलेॅ होतै॥
धन्य-धन्य ऊ गाछो कत्तेॅ भगवन्तोॅ होलोॅ होतै।
कविता तेॅ आजो होथै छेॅ, सब्दो राखं जोही-जोही।
हमरै पर नैं कलम चलै छेॅ निर्मोही छै निर्मोही॥