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याचना / स्वरांगी साने

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तुम उसकी ओर
देखते नहीं
दुत्कारते हो
‘भीख माँगते शर्म नहीं आती’।

वो इतना ही कह पाती है
‘रहम करो’

किसी दिन
जहाँ बोल भी नहीं सकती
इशारों से कहती है
‘सालों से भूखी हूँ’

तुम नज़र नहीं हटाते
अपनी भरी थाली से
कोफ़्त होती है तुम्हें
‘चली आती है जब देखो तब’

कभी तुम उसके
मुँह पर दरवाजा बंद करते हो
कभी थूकते हो उस पर
तब भी
वो ऐसे ही चली आती है
कहती रहती है
‘भला हो तुम्हारा’

किसी दिन कोई पूछ लेता है तुमसे
कौन है वो
तुम कह देते हो
निर्विकार भाव से
‘पगली है कोई’

चौराहे पर ला खड़ा कर दिया है
प्यार ने उसे
माँगती फिर रही है भीख
हर बार ‘टन्न’ से गिरता है
तुम्हारा ‘फिर कभी’
उसके कटोरे में
पगली है उसकी उम्मीद
पगली है उसकी प्रतीक्षा
हाँ
पगली ही है वो।