Last modified on 5 जुलाई 2016, at 04:35

असहमति (कविता) / हरीशचन्द्र पाण्डे

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:35, 5 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरीशचन्द्र पाण्डे |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

अगर कहूँगा शून्य
तो ढूँढ़ने लग जाएँगे बहुत-से लोग बहुत कुछ

इसलिए कहता हूँ ख़ालीपन

जैसे बामियान में बुद्ध प्रतिमा टूटने के बाद का
जैसे अयोध्या में मस्जिद ढहने के बाद का

ढहा-तोड़ दिए गये दोनों
ये मेरे सामने-सामने की बात है

मेरे सामने बने नहीं थे ये
किसी के सामने बने होंगे

मैं बनाने का मंज़र नहीं देख पाया
वह ढहाने का

इन्हें तोड़ने में कुछ ही घंटे लगे
बनाने में महीनों लगे होंगे या फिर वर्षों
पर इन्हें बचाये रखा गया सदियों-सदियों तक

लोग जानते हैं इन्हें तोड़नेवालों के नाम जो गिनती में थे
लोग जानते हैं इन्हें बनानेवालों के नाम जो कुछ ही थे
पर इन्हें बचाये रखनेवालों को नाम से कोई नहीं जानता
असंख्या-असंख्य थे जो
पूर्ण सहमति तो एक अपवाद पद है

असहमति के आदर के सिवा भला कौन बचा सकता है किसी को
इतने लम्बे समय तक!