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मजदूर / चिन्तामणि जोशी

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सुबह काम पर जाते हुए
गुजरता हूँ मिस्त्री-मजदूरों की भीड़ से
बस अड्डे के फुटपाथ पर
पिच्च-पीच पान, फट-फटाक तमाखू
जल्दी-जल्दी बतियाना
मोबाइल पर
‘सब ठीक बा
अच्छे दिन आएंगे
तो फुर्सत से बतियाएंगे
अभी टैम नहीं
परदेश में कमाना है
टैम खराब है
मुनियां का खयाल रखना’
अच्छा लगता है
भीड़ से उठती श्रम की सुगन्ध
गुजरती है नाक के पास से
कान में कह जाती है
निर्माण पलता है इनके हाथों में
और तेरी गोद में

उनकी जेब में सूता-फीता
हाथों में छैनी-हथोड़ी, करनी, गिरमाला, गल्ता
देख कर टटोलता हूँ
अपने कंधे का झोला
लाल-काली स्याही की कलमें
रंगीन चॉक, किताब, डायरी,
मार्कर, स्टेप्लर, कटर
सब तो है मेरे पास भी
लेकिन पत्नी का रखा
दो पराठे, थोड़ा साग, अचार की फाँक
वाला खाने का डिब्बा
और छने पानी की बोतल
फर्क करते हैं
उसमें और मुझमें

दोपहर में
फीकी चाय के प्याले में
पाँच रुपए का बिस्किट
मिट्टी सने हाथों से डुबो कर खाता मजदूर
चोटी पर होता है
मैं तलहटी में
उसे देखने के लिए
गरदन पूरी पीछे खींचनी पड़ती है
सीने में सिकुड़ा सम्मान
उर्ध्वगमन करता है
आंखें बड़ी हो जातीं हैं।