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दुर्दशा दत्तापुर / प्रेमघन

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श्रीपति कृपा प्रभाव, सुखी बहु दिवस निरन्तर।
निरत बिबिध व्यापार, होय गुरु काजनि तत्पर॥१॥

बहु नगरनि धन, जन कृत्रिम सोभा परिपूरित।
बहु ग्रामनि सुख समृद्धि जहाँ निवसति नित॥२॥

रम्यस्थल बहु युक्त लदे फल फूलन सों बन।
ताल नदी नारे जित सोहत, अति मोहत मन॥३॥

शैल अनेक शृंग कन्दरा दरी खोहन मय।
सजित सुडौल परे पाहन चट्टान समुच्चय॥४॥

बहत नदी हहरात जहाँ, नारे कलरव करि।
निदरत जिनहिं नीरझर शीतल स्वच्छ नीर झरि॥५॥

सघन लता द्रुम सों अधित्यका जिनकी सोहत।
किलकारत वानर लंगूर जित, नित मन मोहत॥६॥

सुमन सौरभित पर जहँ जुरि मधुकर गुंजारत।
लदे पक्क नाना प्रकार फल नवल निहारत॥७॥

बर विहंग अबली जहँ भाँति भाँति की आवति।
करि भोजन आतृप्त मनोहर बोल सुनावति॥८॥

कोऊ तराने गावत, कोउ गिटगिरी भरैं जहँ।
कोऊ अलापत राग, कोऊ हरनाम रटैं तहँ॥९॥

धन्यवाद जगदीस देन हित परम प्रेम युत।
प्रति कुंजनि कलरवित होत यों उत्सव अदभुत ॥१०॥

जाके दुर्गम कानन बाघ सिंह जब गरजत।
भागत डरि मृग माल, पथिक जन को जिय लरजत॥११॥

कूकन लगत मयूर जानि घन की धुनि हर्षित।
होत सिकारी जन को मन सहसा आकर्षित॥१२॥

हरी भरी घासन सों अधित्यका छबि छाई।
बहु गुणदायक औषधीन संकुल उपलाई॥१३॥

कबहुँ काज के व्याज, काज अनुरोध कबहुँ तहँ।
कबहुँ मनोरंजन हित जात भ्रमत निवसत जहँ॥१४॥

कबहुँ नगर अरु कबहुँ ग्राम, बन कै पहार पर।
आवश्यक जब जहाँ, जहाँ को कै जब अवसर॥१५॥

अथवा जब नगरन सौं ऊबत जी, तब गाँवन।
गाँवन सों बन शैल नगर हित मन बहलावन॥१६॥

निवसत, पै सब ठौर रहनि निज रही सदा यह।
नित्य कृत्य अरु काम काज सों बच्यो समय, वह॥१७॥

बीतत नित क्रीड़ा कौतुक, आमोद प्रमोदनि।
यथा समय अरु ठौर एक उनमें प्रधान बनि॥१८॥