ईस कृपा सों यदपि निवास स्थान अनेकन।
भिन्न भिन्न ठौरन पर हैं सब सहित सुपासन॥२३॥
बड़ी बड़ी अट्टालिका सहित बाग तड़ागन।
नगर बीच, वन, शैल, निकट अरु नदी किनारन॥२४॥
इष्ट मित्र अरु सुजन सुहृद सज्जन संग निसि दिन।
जिन मैं बीतत समय अधिक तर कलह क्लेश बिन॥२५॥
अति बिशाल परिवार बीच मैं प्रेम परस्पर।
यथा उचित सन्मान समादर सहित निरन्तर॥२६॥
रहत मित्रता को सो बर बरताव सदाहीं।
इक जनहूँ को रुचत काज सों सबहिं सुहाहीं॥२७॥
रहत तहाँ तब लगि सों, जाको जहाँ रमत मन।
निज निज काज बिभाग करत चुप चाप सबै जान॥२८॥
एक काज को तजत, पहुँचि तिहि और सँभालत।
होन देत नहिं हानि भली विधि देखत भालत॥२९॥
सबै सयाने, सबै अनेकन गुन गन मंडित।
कोऊ एक, अनेक विपय के कोऊ पंडित॥३०॥
कोऊ परमारथिक, कोऊ संसारिक काजहि।
कोऊ दुहुँ सों दूर सदा सुख साजहि साजहिं॥३१॥
पै मिलि बैठत जबै सबै रंगि जात एक रंग।
भिन्न भिन्न वादित्र यथा मिलि बजत एक संग॥३२॥
कारन सब मैं सब की रुचि कछु कछु समान सी।
सबहि लहन निष्पाप सुखन की परी बानि सी॥३३॥
नित प्रति विद्या विविध व्यसन, साहित्य समादर।
सुख सामग्री सेवन, कौतूहल विनोद कर॥३४॥
राग रंग संग जबै हाट सुन्दरता लागति।
बहुधा ऐसे समय प्रीति की रीतहु जागति॥३५॥
भरत आह नाले कोउ मोहत वाह वाह करि।
कोऊ तन्मय होत ईस के रंग हियो भरि॥३६॥
यह विचित्रता इतहिं दया करि ईस दिखावत।
विकट विरुद्ध विधान बीच गुल अजब खिलावत॥३७॥
रहत सदा सद्धर्म्म परायण लोग न्याय रत।
काम क्रोध अरु मोह, लोभ सों बचत बचावत॥३८॥
यथा लाभ संतुष्ट, अधिक उद्योग न भावत।
बहु धन मान, बड़ाई के हित, चित न चलावत॥३९॥
सदा ज्ञान वैराग्य योग की होत वारता।
ईस भक्ति मै निरत, सबन के हिय उदारता॥४०॥
"अहै दोष बिन ईश एक" यह सत्य कहावत।
तासों जो कछु दोष इतै लखिबे मैं आवत॥४१॥
सो सम्प्रति प्रचलित जग की गति ओर निहारे।
सौ सौ कुशल इतै लखियत मन माहिं विचारे॥४२॥
मर्यादा प्राचीन अजहुँ जहँ विशद बिराजति।
मिलि सभ्यता नवीन सहित सीमा छबि छाजति॥४३॥
जित सामाजिक संस्कार नहिं अधिक प्रबल बनि।
सत्य सनातन धर्म्म मूल आचार सकत हनि॥४४॥
जित अंगरेजी सिच्छा नहिं संस्कृत दवावति।
वाकी महिमा मेटि कुमति निज नहिं उपजावति॥४५॥
पर उपकार वित्त सों बाहर होत जहाँ पर।
जहँ सज्जन सत्कार यथोचित लहत निरन्तर॥४६॥
जहाँ आर्यता अजहुं सहित अभिमान दिखाती।
जहाँ धर्म रुचि मोहत मन अजहूँ मुसकाती॥४७॥
जहँ विनम्रता, सत्य, शीलता, क्षमा दया संग।
कुल परम्परागत बहुधा लखि परत सोई ढंग॥४८॥
स्वाध्याय, तप निरत जहाँ जन अजहुँ लखाहीं।
बहु सद्धर्म परायन जस कहुँ बिरल सुनाहीं॥४९॥
नहिं कोऊ मूरख नहिं नृशंस नर नीच पापरत।
सुनि जिनकी करतूति होय स्वजनन को सिर नत॥५०॥
जो कोउ मैं कछु दोष तऊ गुन की अधिकाई।
मिलि मयंक मैं ज्यों कलंक नहिं परत दिखाई॥५१॥
जगपति जनु निज दया भूरि भाजन दिखरायो।
जगहित यह आदर्श विप्र कुल विरचि बनायो॥५२॥
सब सुख सामग्री संपन्न गृहस्थ गुनागर।
धन जन सम्पति सुगति मान मर्याद धुरन्धर॥५३॥