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कविता वियोगिनी / बलराम शुक्ल

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तव नामसुधा मुखे विशेदथवा हालहलं महाविषम्।
पृषतान् पिबताद् दिवश्च्युतान् म्रियतां वा तृषयैव चातकः॥
अधरस्तव नाम धारयेदथवा यातु स एडमूकताम्।
अधरेण हरेर्युतालसेन् मुरली वा वन एव शीर्यतु॥
भुवनप्रभुताकरः करः शिरसिच्छत्रवदातपेत्तव।
पुरुहूतकराच्च्युतं पतेत् कुलिशं वाऽनपराद्धमच्युत!॥
कवितारमणी ममानिशं त्वां भुवनैकमणिं स्तवीत्वलम्॥
कथनेऽपरचाटुसन्ततेर्वदने जीर्यतु कण्ठकुण्ठया॥
तव रागपरागरूषिता मम केशा विलसन्तु केशव!।
अथवा विधवाजटाजडा रजसा ते मलिना दरिद्रतु॥
अमृतान्मधुरान् समुज्ज्वलान् निजकर्णे विहृतान्यभूषणम्।
तव कर्णरसायनान् गुणानपिनह्यानि सुकर्णिके इव॥
हतवर्णगुणाऽनलङ्कृतिर्विरसाऽदीप्तरुचिर्विसंहिता।
प्रिय! पश्य न मे विराजते विरहे ते कविता वियोगिनी॥