Last modified on 6 सितम्बर 2016, at 04:57

बिसरी सर्दी / निधि सक्सेना

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:57, 6 सितम्बर 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=निधि सक्सेना |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

हाँ हुआ करती थी सर्दी
शरारती नटखट चंचल
हवाओं पे सवार हो कर आती
झाड़ों की फुनगियों पर बैठती
धमाचौकड़ी मचाती...
सबेरे मेड़ों पर सुस्ताती
रातों को गली गली झाँकती
अलाव जल रहे हैं कि नहीं...

अबके बरस जाने कहाँ खो गई
किसी विरहणी सी अनमनी रही
न वो आतुरता न वो हलचल
कि आ कर भी न आयी...

हमने भी तो वो जंगल काट दिए
जिनकी पुकार पर वो दौड़ी चली आती थी...
वो नदियाँ सुखा दी
जिनकी ताल पर वो मचलती थी...
वो बारिशें गुमा दी
जिनकी थाप पर वो थिरकती थी...
प्रदूषित धुएँ से डरा दिया उसे...

हाँ अब नहीं है वो सर्दी
हरसिंगार के फूल की तरह झड़ गई
ओह: मानव ! वो दरक गई
रिक्त हो गई
खोज रही है अपना अस्तित्व
तुम्हारे धुँधुअाते विप्लव में
तुम दिग्विजयी हुए
वो तिरोहित हो गई तुम पर...