Last modified on 6 सितम्बर 2016, at 05:07

माँ / निधि सक्सेना

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 05:07, 6 सितम्बर 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=निधि सक्सेना |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

बिलकुल फागुन के महीने जैसी थीं माँ
पुकारतीं तो कानों में फाग के गीत बजते...
बिंदी जैसे टेसू का फूल...
आँचल आकाश सा स्वच्छ एवं निर्मल...

जब हथेली पर मेंहदी सजातीं
वहीँ पीली सरसों महक उठती...
जब आंगन में मांडने मांडतीं
वहीं बसंत उतर आता...

गोरैया सी दिनभर घर में फुदकतीं
कभी ओसारे में पापड़ उलटती
कभी अचार को धूप दिखातीं
और यूँ करते गुपचुप कोई गीत गुनगुना देतीं
तब लगता आम पर बौर उन्ही के लिये आया है...

सवेरे जब मंदिर में माथा टेकतीं
फागुन की आंखे गुलाबी हो उठती...
साँझ गये तुलसी के क्यारे पर दीपक धरतीं
चाँद अँजुरी में आ जाता...

ग्यारह महीने दौड़भाग के बाद
जैसे थकाहारा साल फागुन में विश्राम करता है
माँ ऐसा ही फाग थी
उनकी गोद में बिखरा बसंत
कुंदन सी धूप और गुलाबी हँसी...

वो रंगों वाला फागुन माँ के साथ ही लुप्त हो गया
न फिर रसोई महकी
न फिर आँगन चहके...
न आम बौराये...
न विह्वल करता विराम मिला
हाँ आँखों में सावन अवश्य उमड़ने लगा
धानी रंग कुछ धुंधला लगने लगा...