Last modified on 21 सितम्बर 2016, at 03:32

बहुत हुई / नीता पोरवाल

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:32, 21 सितम्बर 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नीता पोरवाल |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

बहुत हुई
दुनिया की रस्म और रंजो-गम की बातें
आज़ हो सके तो कहो
इससे अलाहेदा कुछ कहो...
धुंध में लिपटे
ये सुबहो-शाम
ये ज़मीं ये दरख्त
ऐसे में जीने की वज़ह ढूंढते
फडफडाते परिंदों के बारे में कुछ कहो
कब तक करोगे इंतज़ार
सूरज निकलने का?
सुराखों से जो झाँक रही
उन कोंपलों के बारे में कुछ कहो.
देखो, हथेलियों में होगा
अभी भी नक़्शे-गुल
आज़ बाक़ी बचे उस रंग
उस महक के बारे में कुछ कहो
वक्त के चेहरे पर
चढ़ी जाती है मायूसी की परत
सुनो, आज़ इन कदमों की
टूट गयी लय के बारे में कुछ कहो.
वही रंग, फितरतें वही
बेमानी रवायतों की फेहरिस्त भी वही
रास्ते पर झूमते गाते
अलमस्त फ़क़ीर के बारे में कुछ कहो
नामुराद जिए जाना भी
कैसी आदत है?
आज़ गुमशुदा जिंदगी के उस साज़
उस सरगम के बारे में कुछ कहो...