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नन्हे कलंदर / नीता पोरवाल

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ये नन्हे कलंदर हैं
जब ठुमक कर चलते हैं
तो अपनी पैजनियों से,
करधनियों से नूपुर की ध्वनि नहीं
करतबों के हैरत अंगेज नाद उत्पन्न करते हैं
तालियों के शोर में
रस्सी पर
एक पाँव से देर तक हवा में झूलते
ये वो बोधि वृक्ष हैं
जिनकी छाँव में यदि चाहो तो
समझे जा सकते हैं
ध्यान औ’ योग के अस्फुट पाठ
कनस्तरों, टूटे बक्सों
प्लास्टिक कंटेनरों पर
ओर्केस्ट्रा की धुनें निकालते
ये कलन्दर
महंगे साजों और तालीम के भी
मोहताज़ कहाँ होते हैं?
ककहरा पढ़ने की उम्र में
एक नही कितने ही एकलव्य
अजाने गली-कूचों में
अपनी धनुष सी काया से
कलाबाजियों के तीर साधते
जरूरतों में लिपटे कलाओं के ये ज़खीरे
आखिर सहेजे क्यों नही जाते?
चाक पर खुद ब खुद घूमती
जीती जागती हुनरमंद ये जिंदगियाँ
बेवक्त चली आँधियों में
बिखर जाने भर के लिए तो नही
अनगढ़ हाथों में पड़ कर
सिर्फ़ और सिर्फ़
बदशक्ल हो जाने भर के लिए तो नहीं?