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यादें / नीता पोरवाल

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कहो तो
क्यों लौट लौट
आती हो तुम, यादें!
दिन ढले घर आये बच्चे सी
सांझ की गलबहिया डाल
स्नेह से माथा चूमती
ममतामयी तुम!

जानती हो
खीच कर बढ़ाया वक्त
इलास्टिक की तरह
वहीँ का वहीँ आ ठहरता है
जब बूंदों की अठखेलियाँ करते ही
कागज की कश्तियों में
सैर पर निकल पड़ती थीं मासूम खिलखिलाहटें
जब इन्द्रधनुष आसमान में नही
नन्ही आँखों में झाँका करते थे

पर बारिशों में वही बूँदें
मंजीरे नही बजाती अब
गिरती है
पक्के फर्शों पर
पनीली आँखों से
शिकायतें करती हुईं

यादों की बारिशों में
छई-छपाक करता मन
भींगे परों वाले पंछी सा गुमसुम
धूप के टुकड़े की भी अनदेखी कर बैठता है