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जनतंत्र / शिवनारायण / अमरेन्द्र

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कचरै मंे पलतै
ई मासूम जिनगी
ढूढ़ै छै अपना लेॅ
एक अदद रोटी
कि तीन दिन सें भुखलोॅ
वैं अपनोॅ टा पेटोॅ में
कछुओ हरारत केॅ लै आबेॅ।

भूखोॅ के हाथोॅ में
बंधक छै ओकरे जे देह
कहर ढावै
पूसोॅ के, माघोॅ के शितलहरी
ओला ठो, बरखा ठो, अंधार ठो, पानी ठो
आकि देह झलसैतें
जेठोॅ के धूपोॅ सें कभियो नै
ओकरा तेॅ उनसठिया लोकतंत्रोॅ सें
करै लेॅ लागै संघर्ष
आखिर ऊ जिनगी के कुशल क्षेम
कहिया लेतै ई जनतंत्र।

राजमार्ग सें जैतें
रंग-बिरंगा रं गुदगुदोॅ ठो कपड़ा में
सजलोॅ-सँवरलोॅ, चहकतें ऊ बच्चा सब
जहाँ तहाँ ढेरकरै कुड़ा के जाम
पॉलीबैग फेकी केॅ
वही ठो कूड़ा में काटै छै
कथरी पिन्हलेॅ ऊ मासूम
आपनोॅ जिनगी तमाम
महाशक्ति होवै के होड़ोॅ में
दौड़तें हँफसतें लोकतंत्रोॅ सें आबेॅ
कौंने ई केना केॅ पूछेॅ कि
एक्के ठो वक्ती में
बच्चा के ई दोनों नस्ल
कौनें जनमाबै छै
है जे करोड़ो के अरबो के सर्वशिक्षा अभियान
कौनी दिशा में छै जाय रहलोॅ?
‘गन’ तंत्र के हाथें
जैठां कि गणतंत्रे मौन छै
के सब सभासद ई,
केकरोॅ ई रौन छै?