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आखि़रीन संस्कारु / मोहन हिमथाणी

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यक़ीन थी वियो
तंहिं ॾींहुं
वाक़ई वधी वई आहे
ज़िन्दगीअ जी रफ़्तार
कोशिशूं करे हज़ार
पहुची न सघियो
शहर में ई रहन्दे हू
आखि़रकार, करण लाइ
पंहिंजे पीउ जो दर्शनु
ऐं आखि़रीन संस्कारु।