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उघड़ी चितवन / द्विजेन्द्र 'द्विज'

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उघड़ी चितवन

खोल गई मन


उजले हैं तन

पर मैले मन


उलझेंगे मन

बिखरेंगे जन


अंदर सीलन

बाहर फिसलन


हो परिवर्तन

बदलें आसन


बेशक बन—ठन

जाने जन—जन


भरता मेला

जेबें ठन—ठन


जर्जर चोली

उधड़ी सावन


टूटा छप्पर

सर पर सावन


मन ख़ाली हैं

लब ’जन—गण—मन’


तन है दल—दल

मन है दर्पन


मृत्यु पोखर

झरना जीवन


निर्वासित है

क्यूँ ‘जन—गण—मन’


खलनायक का

क्यूँ अभिनंदन


‘द्विज’ की ग़ज़लें

जय ‘जन—गन—मन’