कविता के परिवार में ग़ज़ल का स्थान अलग से रेखांकित किया जाता है। न सिर्फ़ विधाके स्तर पर बल्कि अरबी, फ़ारसी से लेकर रेख़्ता, हिन्दवी, उर्दू, हिन्दुस्तानी, हिन्दी तक से जीवन रस ग्रहण करती, अपनी ख़ुद की शैलियाँ विकसित करती हुई उसकी अलग और विशिष्ट लोकतांत्रिक पहचान है। समयसंकुलता वश अक्सर लंबी कविता ‘क्वोट’ करना सुविधाप्रद नहीं होता ऐसे में अपनी क्षिप्रता, अपने ‘स्पार्कस’अपनी त्वरा और तेजस्विता के बूते ग़ज़ल का एक शेर आपकी सटीक अभिव्यक्ति बन जाता है। अमीर ख़ुसरो खड़ी बोली हिन्दी के पहले कवि हैं,पहले ग़ज़लकार भी और भाषायी अवतरण के पहले रूपाकार भी-
जे हाले-मिस्कीं, मकुन तगाफुल दुराए नैना बनाय बतियाँ
के ताबे-हिजराँ, न दारमे-दिल न लेहु काहे लगाय छतियाँ।
यह शेर इंगित करता है कि अपने शैशव काल से ही ग़ज़ल न सिर्फ हिन्दी उर्दू की गंगा-जमुनी भाषायी संस्कृति की पैरोकार रही बल्कि अपनी परंपरा में सर्वसमावेशी भी। हिन्दी, बल्कि कहें, हिन्दुस्तानी ग़ज़ल कहते ही ग़ज़ल को एक व्यापक दुनिया मिल जाती है। श्री डी एम मिश्र ग़ज़ल की उस बड़ी दुनिया के ग़ज़लकार हैं।
मौजूदा दौर अंधे अतिरेकों और पूर्वाग्रहों का दौर है। हर चीज़ गंदली की जा रही है। मिश्र जी के आईने में उन खरोचों से गुज़रना एक संवेदनशील शायर के जलते अहसासेां से होकर गुज़रना है-
रेत पर मत किसी की वफ़ा को लिखेा
आसमाँ तक कहीं उड़ न जाये ख़बर।
फूल तोडे़ गये टहनियाँ चुप रहीं
पेड़ काटा गया, बस इसी बात पर।
मिट्टी की पकड़ हमें आश्वस्त करती है-
छू लिया मिट्टी तो थोड़ा हाथ मैला हो गया
पर, मेरा पानी से रिश्ता और गहरा हो गया।
शायरी का परचम जब लहराता है तो बानगी देखते बनती है-
कभी लौ का इधर जाना, कभी लौ का उधर जाना
दिये का खेल है तूफ़ान से अक्सर गुज़र जाना।
श्री मिश्र बुनियादी रूप से परिवर्तन और आक्र्रोश के शायर हैं सो उन्हें बड़ी आसानी से दुष्यन्त, अदम गोंडवी, रामकुमार कृषक, शलभ, नूर मुहम्मद नूर, देवेन्द्र आर्य के कुनबे में रखा जा सकता है। पर, कभी-कभी उनकी ग़ज़लों में रवानगी और उदात्तता उर्दू के मेजर शायरों के आसपास लहरा उठती है, वहाँ वे मीर हैं, ग़ालिब हैं, मख़दूम हैं। कुछ लोग कहते हैं, हिन्दी ग़ज़ल दुष्यन्त और अदम से आगे निकल गयी है तो कुछ कहते हैं आज की ग़ज़ल में निहित राजनीतिक व्यंग्य के कारण उसके इतिवृत्तामक हो जाने का ख़तरा पैदा हो गया है, कुछ और हैं जो कहते हैं ग़ज़ल एक शास्त्रीय विधा है सो उसकी पाकीज़गी हर क़ीमत पर बनाए रखी जानी चाहिए। श्री मिश्र की ग़ज़लें वैसी किसी भी बंदिश को नही मानतीं, और आखि़री निकष जनता को मानती हैं,कारण ग़ज़ल का वजूद जनता के चलते है न कि शुद्वतावादी आलोचकों के चलते। मुक़द्दर पर दो तरह की बातें, पर दोनों सच। श्री मिश्र नियति से दो-दो हाथ करने की ज़िद को नहीं छोड़ते। जहाँ वे इस नियति को स्वीकारते हैं-
खिलौने का मुक़द्दर है यही तो क्या करे कोई
नहीं खेलें तो सड़ जाये जो खेलें टूट जाता है।
वहीं यह भी-
अँधेरा जब मुक़द्दर बन के घर में बैठ जाता है
मेरे कमरे का रोशनदान तब भी जगमगाता है।
श्री मिश्र की उँगली इस हत्यारे समय की नब्ज़ पर है। त्रिलोचन ने कभी जिसके बारे में कहा था-’कल अँधेरे में जिसने सर काटा /नाम मत लो हमारा भाई है। श्री मिश्र कहते हैं-
मौत का मंज़र हमारे सामने था
थरथराता डर हमारे सामने था।
जेा हमारे क़त्ल की साज़िश में था कल
दोस्त अब बनकर हमारे सामने था।
इस हत्यारे समय में नियति की किसी भी बर्बरता से हार न मानने की ज़िद हमें उनके ग़ज़लकार के मर्म और धर्म के प्रति आश्वस्त करती है-
लंबी है ये सियाहरात जानता हूँ मैं
उम्मीद की किरन मगर तलाशता हूँ मैं।
संजीव