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जगौनी / मैथिलीशरण गुप्त

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उठो, हे भारत, हुआ प्रभात।
तजो यह तन्द्रा; जागो तात!

मिटी है कालनिशा इस वार,
हुआ है नवयुग का संचार।
उठो; खोलो अब अपना द्वार,
प्रतीक्षा करता है संसार।
हदय में कुछ तो करो विचार,
पड़े हो कब से पैर पसार!
करो अब और न अपना घात।
उठो, हे भारत, हुआ प्रभात ॥

जगत को देकर शिक्षा-दान,
बने हो आप स्वयं अज्ञान!
सुनाकर मधुर मुक्ति का गान,
हुए हो सहसा मूक-समान।
संभालो अब भी अपना मान,
सहारा देंगे श्री भगवान।
बनेगी फिर भी बिगड़ी बात।
उठो, हे भारत, हुआ प्रभात।