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दो आँखें / श्रीप्रसाद

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दो आँखें हैं, आसमान हम
देख रहे हैं नीला।
दो आँखें हैं, चाँद दीखता
है हमको चमकीला।
दो आँखें हैं, नदी दीखती
सागर लहराता है।
दो आँखें हैं, बाग फूल का
खिल-खिल मुसकाता है।

दो आँखें हैं, धरती फैली
इसका छोर कहाँ है।
एक बड़ा गोला-सा जैसे,
चारों ओर यहाँ है।
दो आँखें हैं, गाय चर रही
हाथी सूँड़ हिलाता।
बच्चों को बैठाये खुश हो,
झूम-झूमकर जाता।

दो आँखें हैं, पेड़ खड़े हैं
फल ही फल हैं लटके।
पके आम गिर रहे पटरपट
दिये किसी ने झटके।
दो आँखें हैं, देख रहे हम
खेल रहे हैं बच्चे।
एक बड़े पत्थर को मिलकर
ठेल रहे हैं बच्चे।

दो आँखें हैं, पुस्तक पढ़ लो
अब पढ़ते हैं कविता
इसको कल हमको गाना है
गायेगी जब सविता।
दो आँखें हैं, द्वार सजा है
देख रहे हैं शादी।
गीत हो रहे हैं, गीतों पर
नाच रही है दादी।

दो आँखें हैं, पर्वत देखे
जंगल देखा सारा।
देखे गाँव, शहर भी देखे
अपना सब घर प्यारा।
दो आँखें वरदान बड़ा है
इनमें ज्योति भरी है।
क्या है लाल, घास धरती पर
कैसी हरी-हरी है।

दो आँखें खुशियाँ देती हैं
सब कुछ दिखा-दिखाकर।
खुशियाँ देती हैं कितनी ही
बातें सिखा-सिखाकर।