प्रतिदिन प्रातः काल
उठता जब,
सुनता हूँ
उड़ती हुई,
पेड़ों पर बैठी हुई
चिड़ियों की चूँ-चूँ-चूँ,
गिरजे पर,
पेड़ों पर बैठे
कबूतरों की गुटुरगूँ,
कौओं की काँव-काँव
सामने मकानों से
कुत्तों की भों-भों-भों।
इनकी इन आवाजों, ध्वनियों में
और इनकी ही उन आवाजों, ध्वनियों में,
सुनता आया हूँ जिन्हें
छः हजार मील दूर,
मुझको लगा न कोई
फर्क है, अन्तर है।
सोचता हूँ-
जब कि इस दूरीपर
इन पशु-पक्षियों की
आवाजें एक हैं,
तो फिर इस दुनिया के
हर किसी कोने में
इनकी आवाजें होंगी एक ही।
प्रश्न उठता है
मेरे मन में यह बार-बार-
क्या हम इन पशुओं से,
पक्षियों से भी गये बीते हैं?
सारी दुनिया में ये फैले हैं
किंतु बोलते हैं ये
एक ही बोली में
एक आवाज में
लगता है इनके लिए
दुनिया सब एक है।
किंतु!
प्रकृति के विजेता हम,
भविष्य के द्रष्टा हम,
नियति के सृष्टा हम
कर सके न पूरा हैं आज तक
स्वप्न ‘एक विश्व’ का।
कैसी यह विडम्बना है
विश्व के विशाल ‘ग्लोब’ के समान
विकसित इस मानव-मस्तिष्क की।
होती है आशंका
मुझको तो ऐसी कुछ
स्वप्न ही न रह जाय कहीं सिर्फ।
और इसी बीच में
जिस दुनिया को एक
दुनिया बनाने का
कर रहे उपाय हम,
उसका अस्तित्व कहीं
अपने ही हाथों से
मिट न जाय।
और जो भी आज कुछ सत्य है
वही कहीं कल एक
सपना न हो जाय।
जनवरी, 1964
(25 बोवर्न स्क्वायर, लंदन डब्ल्यू.सी. 1)