Last modified on 8 मार्च 2017, at 21:19

दर्जी / कुमार कृष्ण

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:19, 8 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार कृष्ण |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

कपास के खेतों को
कैंची से चीरता हुआ दर्जी
हर वक़्त
दोनों हाथों की उंगलियों के बीच होता है
दर्जी पर बात करना
आदमी और डंगर के रिश्ते पर
बात करना है।

राजा और रंक
दोनों के शरीर पर चढ़ा कपड़ा
सुई के पास से
जितनी बार गुजरता है
वह थरथराता है उतनी ही बार।

सुई जब भी होती है हरकत में
नए-नए नाम से पहुँचता है कपड़ा
खूँटियों तक
सुई की नोक कपड़े की तकलीफ़ में
पूरी तरह शामिल है
दर्जी
सुई और कपास
दोनों के रोने की आवाज़
चुपचाप सुनता है
दर्जी कपड़ों की पीठ थपथपाता हुआ
सुई के मुँह में धागा ठूँसते हुए
आँखों में उतरते हुए
मोतिये के बारे में सोचता है
और धीरे-धीरे मशीन चलाता है।

मशीन चलाता हुआ दर्जी
जवान बेटी के सामने होता है
या सुई के पास
वह हुक्के की आग से बतियाता हुआ
टोपियों की नस्ल के बारे में सोचता है
दर्जी जानने लगा है
टोपियों सिलने का मतलब
पूरे गाँव को गुमराह करना है
मशीन से दूर होते ही टोपी
कपास की जगह कुर्सी पर बात करती है
टोपी दर्जी की नहीं
राजा की भाषा बोलती है
दर्जी
टोपियों की हरकतों के बारे में सोचता हुआ
अपने सामने खड़े
सिर को नापता है
और चश्मे के शीशे साफ करता हुआ
मशीन का पहिया घुमाता है।