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तुम्हारे लिए / विनोद शर्मा

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पहली मुलाकात के चौदह बरस बाद
जब मैंने कहा कि मैं तुमसे प्यार करता हूं
तो तुमने धीरे से पूछा कि तुममें ऐसा क्या देखा मैंने?
मैं चुप रहा
करता भी क्या?
तुम्हारे सवाल में एक और सवाल छुपा था
और वो था कि क्या तुम्हारे सवाल का
कोई उत्तर हो सकता था?

शायद नहीं
इसलिए कि तुम्हारा सवाल परे चला गया था
शब्दों से, व्याख्या से,
सोचो अगर यही सवाल
कहीं हव्वा ने बाबा आदम से किया होता
और गलती से वे उत्तर ढूंढ़ने में जुट जाते
तो क्या होता?
हमारी सभ्यता की किताब का शीर्षक ही बदल जाता
क्यों ठीक है ना?

यों भी मैं तुम्हें यह तो बता सकता हूं
कि इन्द्रधनुष के रंगों में या तितलियों के पंखों में
या सूर्योदय की लाली में मुझे क्या दिखाई देता है
मगर तुममें मुझे क्या दिखाई देता है
यह मैं तुम्हें नहीं बता सकता

यों, कल मैंने तुम्हारे सवाल का जवाब
ढूंढने की हिमाकत की थी
और तुम्हरे होठों में दहकते पलाशवनों को भी देखा था
यही नहीं तुम्हारी पलकों के उठने-गिरने में
ब्रह्मा की आयु को बीतते भी देखा था
देखा था प्रलय को
और प्रलय के बाद सृष्टि के जन्म को भी
और मैं तुम्हें उत्तर देने ही जा रहा था
कि मुझे देखकर तुम मुस्करा दीं
और मुझे यकायक महसूस हुआ
कि थोड़ी देर पहले मैंने जो कुछ देखा था
वो किसी फिल्म का एक दृश्य मात्र था
अब तुम्हीं बताओ मैं तुम्हें क्या जवाब दूं?

खैर छोड़ो सवाल-जवाब के इस सिलसिले को
और मुझे कहने दो कि तुम वो नौका हो
जो मुझे अज्ञात द्वीपों तक ले जाती है
वो सीढ़ी हो जिस पर चढ़कर मैं छू लेता हूं
इन्द्रधनुष के रंगों को
वो पुल हो जो ले जाता है मुझे
जीवन की नदी के उस पार
कहने दो मुझे प्रिय कि तुम्हारी उपस्थिति
मुझे विवश करती है देखने के लिए स्वप्न
तुम्हारा स्पर्श मुझे अहसास दिलाता है मेरे होने का
तुम वो बिन्दु हो प्रिय जहां
समाप्त हो जाती है मेरे लिए
जिंदगी की सार्थकता की तलाश
बना रहने दो प्रिय मुझे
अपने मनोहर अनुग्रह में।