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टोना / विनोद शर्मा

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आखिर तुमने कर ही दिया मुझ पर टोना
नहीं तो ऐसा क्यों होता है कि
दर्पण में मुझे अपनी आंखों में
तुम्हारीछवि दिखाई देती है
और जिस भी फिल्म को मैं देखता हूं
उसकी नायिका तुम्हारा रूप धारण कर लेती है

यह सिलसिला यहां खत्म हो जाता तो गनीमत होती
मगर यहां तो सारी हदें पार हो चुकी हैं
अपनी परछाई भी देखता हूं तो यकायक
तुम उसमें से प्रकट हो जाती हो
और रोक लती हो मेरा रास्ता
उनींदी आंखें बंद करता हूं
तो सपनों में उभरने लगती है तुम्हारी छवि
बागों में टहलता हूं तो तुम खेलने लगती हो मेरे साथ
लुका छिपी का खेल
कभी इस फूल में दिखाई देती हो
तो कभी उस फूल में
कभी इस पेड़ के नीचे दिखाई देती हो,
तो कभी उस पेड़ के पीछे
कभी झाड़ियों में तो कभी दिखाई देती हो पत्तों में

आंखमिचौनी सभी खेलते हैं
मगर तुम्हारी तरह
हर वक्त और अनंत समय तक नहीं
हवाओं में बिखरी खुशबू हो
या सूरज की किरणों की चमक
हिरनी की चंचलता हो या खरगोश की मासूमियत
डॉलफिन की उमंग हो
या तितलियों की लगन
लहरों का गज्रन हो या बादलों की गड़गड़ाहट

किसी न किसी बहाने
तुम्हारे कहीं आस पास होने का अहसास
कुदरत कराती ही रहती है
और तो और तारों में भी तुम्हीं टिमटिमाती हो
और चांद में भी तुम्हीं झिलमिलाती हो।
यहां तक कि अगर
कोई कविता लिखने बैठता हूं तो कागज पर
शब्द अंकित करने के बजाए रेखाएं खींचने लगता हूं
और कविता लिखने के बजाए
बना बैठता हूं तुम्हारी तस्वीर
तो मैं बाज आया तुम्हारी चाहत से

ओह मगर तुमने तो मुझ पर
टोना किया है...टोना
नहीं तो ऐसा क्यों होता
कि मैं हर वक्त तुम्हारे ही खयालों में
डूबा रहता
इस वक्त भी।