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अलविदा / विनोद शर्मा

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कितना कठिन है विदा लेना
एक क्षण में शरीर का एक हिस्सा
कटकर गिर पड़ता है जमीन पर
और हम उठा भी नहीं पाते

मिलन और विछोह
तीन तीन अक्षर हैं दोनों शब्दों में
मगर मिलन आलोकित कर देता है
तीनों लोक और छहों ऋतुएं
और बिछोह कर देता है धूमिल
अतीत, वर्तमान और भविष्य

यकायक आशंका से भर उठता है
मन,विदा की बेला में
कब मिलना होगा अब, कभी होगा भी या नहीं?
और होगा तो हालात वे होंगे या नहीं?
प्यार क्या रह पाएगा प्यार तब तक?
या बदल चुका होगा घृणा में?
या हो चुका होगा उदासीन?
या डूब चुका होगा विस्मृति में?
आरी की तरह चलते हैं मन पर सवाल

”मैं उसका हू“ कहने के बजाए ”उसका था“
कहने की आदत डालनी होगी शायद
जुटानी होगी हिम्मत खुद को देते हुए दिलासा
सोचते हुए कि बिछोह में मिलन विद्यमान है
उसी तरह जैसे बीज में पेड़
मगर पेड़ तो समय से ही उगेगा
और वो भी हालात अनुकूल होंगे तब!
और अगर उसके पहले ही खत्म हो गया मेरा समय तो
कैसे होगा मेल फिर दृश्य का अदृश्य से?

यही होता है अक्सर प्यार में
खासकर रफ्तार के इस युग में
कुछ न कुछ मरकर गिरता रहता है
समय के अंतराल की खाई में
और फिर युगों बाद कोई अन्वेषक कह उठता है-
”अरे ये तो जीवाश्म है
लैला के होंठों की थरथराहट का
शीरी की निगाहों की बेचैनी का
जूलियट के रूमाल हिलाते हाथ के स्पर्श का
मिथुनरत क्रौंच-युगल के आर्तनाद का“
और इतिहास की किताब के पन्ने यकायक
फड़फड़ाने लगते हैं हवा के तेज झोंकों से
कहते हुए अलविदा
और प्रेम...जीवाश्म...अन्वेषक भी; खैर अलविदा।