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होश / विष्णुचन्द्र शर्मा

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सुनती हो
सागर लड़ते हुए
बेहोश हो गया है!
मैंने
होश नहीं खोया है!

चुप्पी का राज़

गन्ने के खेतों की मीठी गाँठें
चुप हैं।
वह नहीं जानती
कौन-सा कॉर्पोरेट घराना
खींच लेगा उसका रस।
मैं चाहकर भी अपने ही देश के गन्नों से
बतिया नहीं सकता हूँ।
मैं जानता हूँ
कब वह खोल दे अपना भय
कब छिपा ले अपना अनकहा दर्द!