कोई धरती-तल नहीं फटा है,
भाई-
खौलते गरम पानी का सोता उछालता!
ज्वालामुखी भी नहीं फूटा है
कोई-
ताबड़तोड़ गन्धक-लावा उछालता!
और न कहीं कोई आकाश ही चिहुँका है,
दराड़ फाड़!-
अपने लक्ष-कोटि तारों को झाड़ता-झटकारता!
यह तो अचानक खिसकी है आज
मेरे नन्हे-से मन में,
सीमेंट-सी दृढ़
मेरी मानव-आस्था!
मुझे अपने भीतर कुछ ऐसा-सा लगा
जैसे-
भीमाकार बरगद की कोई गुद्देदार शाखा
फुफकारती काली-पीली आँधियों के तहत,
सहसा-
रात के सायँ-सायँ अँधेरे में
चरमरायी है-
अचकचा कर टूट गिरने को,
पूँछ उठाये अरड़ाते साँड़-सी डकराती!
मुझे अपने भीतर कुछ ऐसा-सा लगा-
जैसे मेरे ठेठ भीतर,
मेरे मन के थरमस का
डेलिकेट काँच टूटा है;
जरूर कुछ क्रेक हुई लगती है
मेरी आत्मा की हड्डी-सी;
कुछ कीमती-सा टूटा है, और
एक गुम्मचोट आई है मेरे भीतर!-ला-इलाज!
आज मैं अपने आपसे डर गया,
स्तम्भित रह गया,
गोल-गोल अपनी नन्हीं आँखें खोले-
जैसे पंछी
झंझा के झटकों वाले आँधी पानी में!
आज मेरी आस्था टूटी,
आज अपना एक निजी प्रलय हुआ!
बिछे थे स्पिं्रगदार सोफे, पर्दे झूलते थे,
दूधिया रॉड की रोशनी थी
सनमाइका की बड़ी मेज थी-फ्लॉवर पॉट सजी;
गाँधी का चित्र-चमकती फ्रेम जड़ा-
लटक रहा था दीवार पर क़रीने से,
साहबी रौलिंग चेअर के दाएँ!
सजा हुआ था, बड़ा चैम्बर;
नफ़ासत थी!
1977