Last modified on 20 मार्च 2017, at 13:41

चुपचाप / तरुण

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:41, 20 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामेश्वर खंडेलवाल 'तरुण' |अनुवादक...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

पीड़ा से दिन-रात तड़प कर कुछ तो मन की बात कह गये,
कुछ, जीवन को शीश झुका कर, जो आया-चुपचाप सह गये!

मन में मीठी अभिलाषा ले, बैठ रेत के रचे घरौंदे,
पर, पानी की लहरें आईं, अभी बनेथे-अभी बह गये!

बन-बन भटक, दीन पंछी ने तिनके चुन-चुन नीड़ रचा था,
सहसा आँधी उठी भयंकर, मन के सारे महल ढह गये!

चोंच खोलकर आस लगाए, पी-पी रटता रहा पपीहा,
किन्तु न आये घन निर्मोही, नयन खुले-के-खुले रह गये!

कुछ ने हँसकर, कुछ ने रोकर जीवन की निष्ठुरता देखी,
कुछ के आँसू सूख गए गिर, कुछ के गीले नयन रह गए!

गिरे वियोगी के जो आँसू, धरती पर हो गये ओसकण,
मोती हुए गिरे जो जल में, नभ में जा नक्षत्र हो गये।

1974