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सरला / तरुण

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सरला-आठ बरस की कन्या, गोरी-गोरी, बड़ी हँसोड़ी,
खिल्खिल् हँसती-फिरती दिन भर-
चप्पल पहने फट्फट् करती, फिरती रहती है घर-बाहर,
बड़ीबड़ी काली आँखें हैं,
भाल, पंचमी-चाँद सरीखा-सहज-प्रसन्न, स्निग्ध, शुभ्रोज्ज्वल।
लम्बे, चिकने, काले, कोमल, घने, सुगन्धित-
लहराते रहते हैं उज्ज्वल केश बड़े सुन्दर घुँघराले।
खोटी और बड़ी नटखट है-बड़ी लाड़ली है घर-भर की।
स्वस्थ, छरहरी, कोमल काया-स्नेह, रूप, सौरभ की छाया!
जब से भाभी आई घर में नई विवाहित-
एक मिनट भी दूर नहीं होती है उससे; बड़ा चाव अपनी भाभी का।
कई बार इतरा-इतरा कर, झूम-झूम जाती है उससे, बड़े लाड़ से।


खुला पड़ा शृंगार-दान है।
बड़े आईने के सम्मुख हो खड़ी अकेली, भाभी है शृंगार कर रही।
सरला आई- अपनी भाभी के कमरे में,
फूलों वाली फ्राफक पहनकर-हो तैार सिनेमा जाने।
नये चाँद की-सी मुसकाती भाभी ने झट पास खींच कर बड़े स्नेह से-
स्वर्ण-चूड़ियों से आभूषित मक्खन-से चिकने हाथों से-
एक सलाई भर चुपके से, सहज आँक दी हिंगुल की बिंदी माथे पर,
नवल कमल-पँखुरी-से उभरे स्निग्ध गाल पर रेख खींच दी,
और दिखाया शीशे में मुख।
नटखट सरला वहीं खिलखिला पड़ी ज़ोर से; और लपक कर-
नीचे दौड़ी गई तभी जीने से होकर।

मार ठहाका-दिखलाया क्रम-क्रम से माँ को,
ताई को, चाचा-चाची को-
‘देखो, यह देखो, भाभी ने क्या कर दिया पकड़ कर हमको!’
धीमे से ऊपर को आई-पोंछेगी भाभी के आँचल से ही उसको।
देख लिया पति-आलिंगन-आबद्ध अचानक निज भाभी को।
(चले गये भैया कमरे से)
भाभी सहमी; आँखों से समझाकर उसको,
ओठों पर उँगली रख, कर संकेत बुलाया-
दिया बताशा और इकन्नी।
किन्-किन् हँसती रही किन्तु नटखट वह-
अपना शीश डुलाती, नयन नचाती,
कहती हुई द्वार पर रुककर-एक पैर बाहर को रखती-
‘कहती हूँ जाकर अम्मां से!’
ओठ काटती, मादक नयनों से समझाती, मुसकाती, निज पास बुलाती,
भाभी थी रह गई खड़ी की खड़ी, हाथ में सींक लिये-सी,
नयनों में संकोच-पिये सी!
पहुँच चुकी थी पर वह नीचे।


खन्-खन् सी कर उठीं चूड़ियाँ
अरुणोदय की मृदु लाली में राजहंसिनी के कलरव-सी।
और, अधर पर खेल रही थी भीनी मृदु मुसकान मनोहर-
नये चाँद की मृदुल चाँदनी ज्यों सुरभित कचनार-कुंज में!
सैंट-सुवासित मृदुल रेशमी साड़ी से रह-रह उठती थीं-
सौरभ की सुकुमार तरंगे।
आभूषण की ध्वनि लगती थी-
मानो लघु-लघु रंग-बिरंगी चिड़ियों का कामल कूजन हो-
नवल अनारों की डालों में, ऊषा की माणिक-आभा में!

1951