बहुत दूर से चलते-चलते आ
अब ज़रा बैठ गया हूँ यहाँ मैं
इस निर्जन की शांति में,
बैलगाड़ी की गड़ार के सहारे;
बबूलों की छाया में, नचीत;
धूल-पसीना-सने अपने आरामदेह कपड़ों के अब और
धूल में भरने का कोई डर नहीं!
सुस्ता रहा हूँ अपना छबड़ा खोल;
छोड़ रखे हैं मैंने अपने सभी सफेद कबूतर-आकाश में-
मुक्त विहार के लिए!
पीछे पूरी गर्दन घुमा कर
अपनी तय की हुई मंज़िलों का जायज़ा लेने-
देख रहा हूँ-
बहुत दूर से सर्पाकार टेढ़ी-मेढ़ी
धुँधुआती नील-धूमिल दूरियों में से रेंगती-सी आती
अपनी पगडंडी;
जीवन के चितकबरे रंगों के चित्रों वाले अलबमों-भरी-
अपनी मौन पथरायी-सी आँखों से!
बीराना फैला सुनसान आज कितना मीठा है!
सफेद कबूतर मेरे उड़ रहे हैं मुक्त!
खरखराते पात वाले
बाँसों की डालों में फुदकते फिर रहे हैं पँखेरू!
ताँबे-सोने की साँझ अब होने को है!