एक में से एक निकलते
बालू रेत के बादामी टीबे-ही-टीबे, टीबे-ही-टीबे;
मरुस्थलीय शून्य निर्जन भुरभुरा एकान्त!
कीकर, खेजड़ा, जाँठ के कँटीले पेड़ों-
झाड़ी-झुरमुटों में
पखेरू उड़ रहे हैं-कुल, कुल, कुल, कुल,
करते काँ-काँ-काँ-
पीछे, साँझ का अनमना सूरज
पानी की लहरों में डूबती-उतराती थाली-सा
ढल रहा है-
ध्यानमग्न, अन्तर्मुख, चोट-खाया;
जीवन के चतुर्दिक् से होकर बहरा
जैसे-कभी सत्तारूढ़ रहे
किसी अब अपदस्थ का
लुढ़कता-सा अनुभूतियों-भरा नीरव चेहरा।
जो जीवन-यात्रांत में, बस पल-दो-पल
सीख की कोई गहरी बात मानो
संसार को कहने को ठहरा!
साँस निकलने से पहले!
1990