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घिरते हुए / महावीर सरवर

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क्यों होता है ऐसा
क्यों नहीं हो पाता मैं औरों जैसा
क्यों नहीं भाते मुझे यह सब
सहज से सहज होती सीढ़ियों पर चढ़ते लोग
खुशगवार चेहरों वाले?

क्यों नहीं चाहता इन सबकी तरह मैं भी
ये सब सुख और भड़कीली सुविधाएं
कहां अलग हो जाती है/मेरी और इनकी
आकांक्षाओं की राहें
क्यों नहीं चाहें भी इनकी चाहोंसे
मिल पातीं
क्यों नहीं हो सकता इनकी तरह मैं भी
किसी चकाचौध में गुम।
कैसी फुरसत में ये सब भोग लेते हैं
जीवन का कोमल स्पर्श
और मैं मौन हमेशा कुछ रूखा-सा सहता हूं
और बेचैन रहता हूं!

कुछ हरदम हाथ बढ़ाते हैं कि मैं
उनकी उंगलियां थाम लूं
और तिरस्कृत हो जाते हैं मेरे इंकार से
क्यों मैं इनकी तरह हर तरफ खुलने वाली
राहों पर नहीं चलना चाहता
क्यों मैं अनिच्छाओं के इस वर्तुलाकार
जंगल में ही भटकने को अभिशप्त हूं।

क्यों मैं इनकी तरह जीवन के
रेशमी अनुबन्ध स्वीकार नहीं कर पाता हूं
क्यों मैं लम्हा-लम्हा खुद से टकराता हूं
और पस्त वापस लौट आता हूं।