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शोक / विजय किशोर मानव

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तुम्हें कुछ महसूस नहीं होता
बड़े-बड़े पंख
ऊंची परवाज वाले
कटते देखते
कमरे के घोंसले में,
बच्चों को दाना चुगाकर जाती गौरैया का
पंखे से टकराकर
लहूलुहान होना
नहीं आता तुम्हारे शोक की श्रेणी में।

फटा नहीं होता है
इज्जत लुटने की खबर लेकर आते
अखबार का कोना,
कुछ नहीं होता भीतर तुम्हारे
कुचले जाने पर पैरों तले
गुलाब का छतनार फूल।

फिर क्यों आना चाहिए
एक बड़े शोक की श्रेणी में
कुछ भी न देख पाने वाली
तुम्हारे आंखों की रोशनी का जाना,
डूब जाना संवेदनहीन दिल की
धड़कनों का अचानक।

राष्ट्रीय शोक की श्रेणी में
आनी चाहिए क्यों
किसी एक की अकेली मौत
जो सचिवालय की ऊपरी मंजिल से
देख पाता था
सिर्फ हरियाली राजधानी की।