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नुमाइश / विजय किशोर मानव

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चेहरों की विशाल नुमाइश में
मुझे जगह मिली है
खड़े होने की
एक अंधेरे, संकरे कोने में।
उधर बीचों-बीच सजे हैं चेहरे
सिंहासनों पर,
उनके पैताने बड़े-बड़े धन्ना सेठ
सीखें निपोरते और
बाजू चेहरे
अफसरों के/दलालों के-

खुशामदी काइयां
और पीछे हैं चेहरे
सजे कतारों में
व्यापारियों और खास-खास लोगों के
रंगे-पुते गजब की फिनिश वाले।

सिर्फ प्रतिनिधि चेहरे हैं
बड़े हाल में,
उधर बाहर खुले में
निचाट धूप में
एक बड़ा हुजूम चेहरों का
पोंछ रहा है पसीना
‘हाउसफुल’ की तख्ती ताकता,
सख्त मनाही है भीतर आने की।
कोई दाखिल होता है भीतर
आंख बचाकर,
टूट पड़ते हैं चाक चौबन्द वर्दी वाले
ले जाते हैं एक मरियल ढांचा
घसीटते हुए बाहर।

चेहरों पर चस्पां
गहरे शानदार मेकअप को नकारते
बोल पड़ते हैं निशान कई,
बिदक जाता है खरीदार
पूछ लेता है-
कैसे हैं ये निशान?
फुसफुसाता है नेपथ्य से कोई-
‘राहजनी के-
रात के अंधेरे/नि के उजाले/कहीं भी
किसी से भी लूटपाट के,
जाहिर है
लूटने वाले के भी
नाखून तो होते ही हैं!’

देर नहीं करता
तेज समवेतस्वर
रौंदता नेपथ्य के स्वर को,
गूंज उठता है पूरे हाल में
खास चेहरों का साझा बयान बनकर-
जिये हैं हम पूरी उम्र
भरत की परंपरा
शेर के दांत गिनने की
और शेर के दांत गिनने में
इतनी खरोंचें तो आती ही हैं,
राष्ट्रीयता के मेडल जैसी
हमारी पूंजी हैं ये खरोंचें।

मैं अपनी अंगुलियों से
टटोलता हूं अपना चेहरा
न मेकअप की परतें, न निशान,
देखता हूं गौर से
अपने बहुत करीब के चेहरे
उन पर भी कुछ नहीं
यहां कोई नहीं समझा
इधर क्यों नहीं आए खरीदार!