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स्मारक / विजय किशोर मानव

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एक सड़क है उसके नाम की
और बहुत महंगी जमीन पर
एक बड़ी सी समाधि भी,
जरूर किया होगा
कोई बड़ा काम
ठीक-ठीक याद नहीं
किसी नायक की कथा
दर्ज है इस सड़क और
समाधि की शक्ल में,
सिरे पर सड़क के एक पत्थर
खड़ा है माथे पर गुदवाए
उसका नाम बड़ा-बड़ा
अंग्रेजी और हिन्दी में भी,
लेकिन गूंगी हो गई हैं भाषाएं-
कुछ नहीं कहतीं
बहरे हो गए हैं लोग-
कुछ नहीं सुनते।

सुबह से शाम तक की
एक ठसाठस भीड़
रौंद रही है यह सड़क
किसी को कुछ याद नहीं-
कौन था वह...? क्या किया उसने?

समाधि के आसपास
दूर तक फैला एकांत
काम की चीज है बड़े शहर में
मुलाकातों के लिए,
पिकनिक या फिर अपराधों के लिए
सैलाब आते हैं चेहरों की शक्ल में
आंखें टिकाए अपने-अपने लक्ष्य पर
महाभारत के अर्जुन की मुद्रा में
एक...दो...तीन नहीं
अनगिनत अर्जुनों की कतार है यहां
नई उमर की-
मौजमस्ती, लूटखसोट
चिकने, वजनी शरीरों की वर्जिश।
दुनियादार राजपुरुषों की दुकानदारी
लिख गई है मैदान के चप्पे-चप्पे पर
मोटे काले अक्षरों में
करीब-करीब मिट चुकी
पहले से लिखी महापुरुष की जीवनी पर।

पास के कब्रिस्तान की जीवनी पर।
खड़ी बहुमंजिला इमारत,
अगल-बगल और बहुत सारी
हमशक्ल इमारतें
शहर की बेतहाशा बढ़ती जरूरतें
और आसमान छूती कीमतें जमीन की
मैंने आंख भर देखा
समाधि के आसपास दूर तक
खाली पड़ा जमीन का
बड़ा और बेशकीमती टुकड़ा-
महापुरुष के नाम का,
पता नहीं क्यों आज
वहां से लौटते हुए
मुझे बहुत डर लगा।