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नामदेव ढसाल / कर्मानंद आर्य

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पिंडलियों में बहुत दर्द है
याद आ रही है तुम्हारी कविता
सभी संक्रामक बीमारियों पर मेरा बस नहीं
पर दूर करना चाहता हूँ वह प्लेग
जो ख़त्म कर रही है
तुम्हारी कविता
मैंने जीवन में आस्था पैदा की है
लिखे हैं जीने के शुद्ध-अभंग
कबीर को गाता हूँ
रैदास के पदों का चिंतन करता हूँ
तुकाराम को जीता हूँ तुम्हारी कविता में
षड विकार हैं गहरे बसे हुए
जबान नहीं निकलती
हकलाकर निकलता है कोई शब्द
तुम्हारी कविता का एक शब्द
खोल रहा है सदियों से रुंधा हुआ गला
हर दर्द की दवा
हर दर्द की दुआ
हर नदी के पानी से जुड़ी हुई है
तुम्हारी आवाज
‘मुझे नहीं बसाना है अलग से स्वतंत्र द्वीप
मेरी कविता, तू चलती रह सामान्य ढंग से
आदमी के साथ उसकी उँगली पकड़कर’
यही तो कहना चाहता था मैं भी
नामदेव
पिंडलियों में बहुत दर्द है
याद आ रही है तुम्हारी कविता