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हिरण्यमयी / कर्मानंद आर्य

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इन दिनों छेड़ रहा हूँ कली दर कली
पत्ता दर पत्ता छू रहा हूँ
तुम्हारे अभंग
नयनों की तलहटी में
तुममें ही ढूँढ रहा हूँ तुम्हारा आयतन

गोल, वृत्ताकार, आयत
कितनेढंग से दिखती है धरती
कितने रंगों की होती है मिट्टी
ढूँढ रहा हूँ तुम्हारी मिट्टी का रंग

किसी गहरे कुएँ में तुम
न ज्यादा बड़ी न छोटी
न अनुभवहीनन अनुभववाली
न कोमल न पत्थर
डूब रहा है एक गागर
गुडुप......गुडुप........गुडुप

तुम्हें संभाल रहा हूँ
जैसे कूदती है अनुभवहीन की अनुभूति
वैसे कूद रही है भीतर की मछली

ओ मेरी हिरण्यमयी धरती