Last modified on 30 मार्च 2017, at 10:55

अस्तित्व / कर्मानंद आर्य

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:55, 30 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कर्मानंद आर्य |अनुवादक= |संग्रह=अ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

इतनी आग है
जला सकते हैं तुम्हारा बदन
इतनी ऊष्मा है
पिघला सकते हैं ठंडा लोहा
इतनी कुंठा है
फूंक सकते हैं तुम्हारा राजमहल
इतना जहर है
विष के कटोरे में तब्दील कर सकते हैं
तुम्हारी काया
हमने तो केवल प्यार से काम चलाया है
जाने कितने हथियार हैं
हमारी जेब में अभी
हमारी मुट्ठियों में
ज्वाला है
जिसका प्रयोग हम
‘दिया’ जलाने के लिए कर रहे हैं
हमने हाथ को हथियार नहीं बनाया है
अभी तक
पर अब हम सोच रहे हैं.....
दीमकों! तुम माफ़ करने योग्य नहीं हो
फिर भी जाने क्यों
अस्तित्व है अभी तुम्हारा
हमारी भरी पूरी दुनिया में